लोगों की राय

उपन्यास >> उदास नस्लें

उदास नस्लें

अब्दुल्लाह हुसैन

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :424
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3178
आईएसबीएन :9788126711871

Like this Hindi book 12 पाठकों को प्रिय

257 पाठक हैं

इस पुस्तक में भारत में हुए प्रथम विश्वयुद्ध के समय घर से बेघर हुए लोगों के विषय का वर्णन हुआ है...

udas naslain

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

भारत के विभाजन और विस्थापन का गहरा चित्रण सबसे ज़्यादा उर्दू, उसमें भी ख़ासकर पाकिस्तान के कथा-साहित्य में हुआ है। इसका सबसे बड़ा कारण शायद यह है कि मुख्य भूमि को छोड़कर वहाँ गए लेखक अब भी किसी न किसी स्तर पर विस्थापन के दर्द को महसूस करते हैं। हालाँकि, उनका लेखन एक महान सामाजिक संस्कृतिक और विरासत से कट जाने के दर्द तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उसमें अपनी अस्मिता को नए ढंग से परिभाषित करने का उपक्रम भी है।
पाकिस्तान के सुविख्यात लेखक अब्दुल्लाह हुसैन के इस उपन्यास की विशेषता यह है कि इसका कथानक विभाजन और विस्थापन तक सीमित नहीं है, बल्कि अन्य कई प्रकार की अस्मिताओं की टकराहट इसमें देखी जा सकती है। भारतीय उपमहाद्वीप के पराम्परागत समाज के आधुनिक समाज में तब्दील होने की जद्दोहद इसके केन्द्र में है।

उपन्यास का कथानक प्रथम विश्व युद्ध के कुछ पूर्व से विभाजन और उसके पश्चात की घटनाओं और उपद्रवों के समय तक फैला हुआ है। विशाल कैनवस वाला यह उपन्यास तीन युगों का दस्तावेज़ है। पहला अंग्रेज़ी साम्राज्य का युग, दूसरा स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए संघर्ष का काल और तीसरा विभाजन के पश्चात का ज़माना। इसमें हिन्दुस्तान में बसने वाली कई पीढ़ियों के साथ बदलते हुए ज़मानों का चित्रण है और समाज, सभ्यता तथा राजनीति की पृष्ठभूमि में बदलती हुई सोच का भी।

‘उदास नस्लें’ का नायक कोई व्यक्ति न होकर, समकालीन जीवन के विभिन्न कालखंड और उनसे गुज़रते हुए संघर्ष तथा व्यथा के भँवर में घिरी तीन पीढ़ियाँ हैं। इतिहास का ताना-बाना उन्हीं के अनुभवों के इर्द-गिर्द बुना गया है। इसमें शहरी तथा ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले दो परिवारों की कथा है।

नईम और अज़रा दो भिन्न समाजों और मानसिक और भावात्मक सरोकार के दो विपरीत पक्षों के प्रतिनिधि हैं। उनके बीच प्रक्रिया और प्रतिक्रिया का सिलसिला जारी रहता है। वे दोनों अपनी जड़ों से तो नहीं कट सकते क्योंकि वे उनके संस्कारों का हिस्सा बन चुकीं हैं, फिर भी एक प्रकार के कायाकल्प की प्रक्रिया से वे ज़रूर गुज़रते हैं।
नईम अपने स्वभाव और मूल वृत्तियों से धरती का बेटा है, परन्तु अज़रा के माध्यम से उसका परिचय उस जीवन से होता है जो किसी हद तक परम्परागत मान्यताओं के अनुरुप नहीं हैं। नईम और अज़रा की आपसी निष्ठा का आत्मीयता में प्रेम का तत्त्व उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना दो अस्मिताओं में एकत्व पैदा करने और उनके अंदर विस्तार तलाश करने की भावना। परन्तु, अंत में उसकी पराजय हृदयविदारक है।

 

ISAIAH
1

 

 

सारे गांव में मुश्किल से सौ घर थे। इस गांव का नाम रौशनपुर था यह रास्ते से हटकर बसा हुआ था और कोई कच्ची या पक्की सड़क भी यहां न आती थी। उस तरफ़ से देहात में आने-जाने का सिलसिला इक्कों, ताँगों पर या पैदल चलके तय होता था। टूटी-फूटी, टेड़ी-मेढी पगडंडियाँ थीं, जो ज़्यादातर एक दूसरी को काटती थीं। अक्सर ऐसा होता था, कि कच्ची याददाश्तवाले मुसाफ़िर और इक्काबान ग़लत रास्ते पर पड़ जाते थे और किसी अजनबी गाँव में पहुँचकर परेशानी उठाते थे, मगर हर रोज़ की बात थी और गाँववालों को ऐसे मुसाफ़िरों के साथ अच्छा बरताव करने की आदत-सी पड़ गई थी और इन लोगों को पहर-दो पहर सुस्ताने के लिए खाट और प्यास बुझाने के लिए लस्सी-पानी भी मिल जाता था।
पगडंडियों पर सारा दिन सूरज चमका करता था। धूप की मारी वे बड़ी भोली-भाली और साफ़-सुथरी लेटी रहतीं, मगर उनकी कमीनगी उस वक़्त ज़ाहिर होती, जब कोई सवारी उनके ऊपर से गुज़रती।

तब वे पगडंडियाँ धूल का एक तूफ़ान उठातीं, जो फ़ज़ा में देर तक मँडलाता रहता और दूर-पास जो भी इनसान, जानवर या पेड़ उसके निशाने पर आता यकसाँ उसकी दिल-आज़ारी1 का सबब बनता। किसान मुसाफ़िरों को ग़लत रास्ते पर डाल देना और धूल उड़ा-उड़ाकर आस-पास के जानवरों को तंग करना इन पगडंडियों के पास अपनी बदहाली पर ख़ामोश एहतिज़ाज2 करने के दो मुएस्सिर3 तीरीक़े थे। रौशनपुर जाने के लिए आपकों रानीकोट के छोटे-से क़स्बाती स्टेशन पर उतरकर ऐसे ही रास्तों पर पच्छिम की तरफ़ दूर तक चलना पड़ता था। रास्तें में आपकों कुत्ते मिलते। ये ऐसे ही मामूली, आवारा कुत्ते थे, जो हर गाँव में होते हैं और गाँववालों की राय का ख़्वाहिश के बग़ैर ही अपने ऊपर सारे गाँव की हिफ़ाजत और देखभाल का ज़िम्मा ले लेते हैं। ये कुत्ते अक्सर क़रीब से गुज़रनेवालों को बैरूनी4 हमलावर और गाँव की सलामती के लिए सख़्त ख़तरें का बाइस5 समझते। अपने ख़दशात6 का ऐलान ऊँची आवाज़ में भौंक-भौंक कर करते, और इस ही मामूली और शक्की मिज़ाज कुत्तों के हवाले करके इत्मीनान से वापस लौटते। कमज़ोर दिलो-दिमाग़ रखने वाले मुसाफ़िर अक्सर तैस में आकर रूक जाते, उन्हें कोसते, पत्थर उठा-उठाकर मारते, पीछे भागते और तरह-तरह की हरकतों से सख़्त नाराज़गी का इज़हार करते। लेकिन तब्ए-सलीम8 के मालिक लोग कुत्तों की निस्बत अपने बक़ार9 और बरतन हैसियत को ज़्यादा अहमियत देते और दरगुज़ार करके निकल जाते। इस तरह चौदह कोस के लम्बें सफ़र के बाद गर्द
----------------------------------------------------------------------------------------------
1. दिल दुखाना,
2. प्रतिशोध,
3. प्रभावशाली,
4. बाहरी,
5. मूल कारण,
6. आशंकाओं,
7. विरोध,
8. गम्भीर स्वभाव,
9. प्रतिष्ठा।

में अटे और उकताए हुए, थके-हारें आप रोशनपुर पहुँचते। यह गाँव नहर के किनारे आबाद था नहर का पानी यहाँ की ज़मीनों को सैराब करता था।

इलाक़ाई तौर पर इस गाँव की हैसियत कम-से-कम1 के लिहाज़ से ग़ैर-मुसल्लम2 थी। एक गिरोह, जिसका सरबराह3 गाँव का सबसे ज़्यादा उम्र का किसान अहमद दीन था, मुद्दई4 थी। एक गिरोह, जो सिख किसान हरनाम सिंह की सरबराही में था, दावा करता था कि गाँव सूबा पंजाब में है। इस बात पर अकसर चौपाल में बहस होती थी। बहरहाल, यह बात मुसल्लम5 थी कि गाँव दोनों सूबों की सरहद पर किसी जगह था। इस गांव का रहन-सहन भी इसी दूई का नमूना था। जो सिख क़ौम के लोग यहां आबाद थे, वे पंजाब के सिख किसानों की तरह पहनते-खाते और पंजाबी ज़वान में गुफ़्तगू करते थे। हिन्दू और मुसलमान तबक़ा यू.पी. के किसानों की मुआशरत6 का रवादार7 था। इसके बावजूद गाँव के दो-ढ़ाई सौ लोग बड़े अमन और सुलहजोई के साथ अपने-अपने तौर पर अपनी-अपनी ज़िन्दगियाँ बसर कर रहे थे।

रौशनपुर की तारीख़8 मुख़्तसर और रोमानी थी। इसे आबाद हुए आधी सदी से चन्द्र साल ऊपर का अरसा हुआ था। इस लिहाज़ से वह इस इलाके का सबसे कम-उम्र गाँव था। यहाँ अभी उस नस्ल के भी कई लोग बक़ैदे-हयात9 थे, जिसने पहले –पहल आकर यह गाँव आबाद किया था। जिस वक़्त का हम जिक्र कर रहे हैं, उस वक़्त दूसरी और तीसरी नस्ल इसकी जमीनों में से रौशनपुर में आकर बसा था, और चन्द कुनबों में से था, जिन्होंने ग़ैर-आबादी ज़मीन में से रौसनपुर का गाँव आबाद किया था। यह तरीख़ी कहानी वह इस तरह बयान करता थाः जह सन् सत्तावन का ग़दर मचा, तो नवाब रौशन अली ख़ाँ ज़िला रोहताक के कलेक्टर के दफ़्तर में मामूली अहलकार थे (ज़ाहिर है कि उस वक़्त वह नवाब नहीं रहे होंगे) मिडिल तक तालीमयाफ़ता थे और अपनी शराफ़त की वजह से दोस्त-अहबाब और गली-कूचों में इज़्ज़त की निगाहों से देख जाते थे। उस ज़माने में रोज़ शहर में बगावत की आग भड़की, और हिन्दुस्तानी सिपाही अंग्रेज़ अफ़सरों के ख़िलाफ़ हथियार लेकर उठ खड़े हुए, उस रोज़ शहर के लोगों में भी ख़ौफ़ो-हिरान के साथ-साथ ग़मों-गुस्से की लहर दौड़ गई। कई जगह लोग गली-मुहल्लों में इकट्ठे होकर छावनी में आनेवाली ख़बरों पर कान लगाए बैठे थे, गो11 यह समझना ग़लती होगी कि वे सबके सब अंग्रज़ों के जानी दुश्मन थे। रात पड़ी तो सब शहरी अपने-अपने मकानों में बन्द हो गए।

शाम के क़रीब रौशन अली ख़ाँ ने अपने एक बीमार दोस्त से, जिसकी मिज़ाजपुरसी12 की ख़ातिर वह उसके यहाँ तशरीफ़ ले गए थे, इजाज़त हासिल की और लौटे। अपनी गली में पिछली गली के अन्दर दाख़िल हुए थे कि चन्द क़दम आगे एक भागते हुए शख़्स पर नज़र पड़ी। देखते-देखते वह साया लड़खड़ा कर गिरा और साकिन13 हो गया। उन्हें तश्वीश14 हुई। तेज़ी से बढ़कर उस पर झुके, लेकिन अँधेरे की वजह से कुछ पहचान न पाए। फिर आवाज़ें दीं। टटोला। नाक के आगे हाथ रखकर साँस की रवानी को महसूस किया और सिर्फ़ इतना जान पाए कि कोई मुसीबत का मारा है ग़श खा गया है। बग़ैर सोचे-समझे उठाकर कन्धे पर लादा और चल पड़े। मज़बूत आदमी थे। एक गली आसानी से चलकर पार कर ली, पर बेहोश आदमी वज़नदार होता है। एक जगह जो कन्धा बदलने को रुके, तो कोई सख़्त-सी चीज़ महसूस हुई। टटोलकर देखा, तो उस शख़्स की कमर के साथ बँधा हुआ तमंचा था। साथ ही उनका हाथ ख़ून से लुथड़ गया। वह ज़ख़्मी भी था। उसका माथा ठनका लेकिन उसे उठाए हुए चलते रहे।
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
1.जनमत, 2. विवादास्पद, 3. नेता, 4. वादी, 5.निर्विवाद, 6 सामाजिकता, 7.. पक्षपाती, 8.इतिहास, 9. जीवित, 10. प्रमाणित साधन, 11. यद्यपि, 12. किसी रोगी को देखने और दिलासा देने के लिए जाना, 13. निश्चल, 14. चिन्ता।

घर पहुँचकर जो चिराग़ की रोशनी में देखा, तो एकदम सर्द पड़ गए। उनके सामने सुनहरी बालोंवाला एक अंग्रेज़ पड़ा था, जो हिन्दुस्तानी दुकानदारों के लिबास में था। उसका चेहरा बेहद ज़र्द और साँस मद्धिम था। उन्होने दौड़कर दरवाज़ा बन्द किया और उसे होश में लाने की जतन करने लगे। सबसे पहले घर की औरतों को परदें में करके उसका लिबास बदला गया था, पट्टी बाँधी। फिर अपनी माँ को बुलाया। पहले उस नेक बीवी ने मरीज़ के फ़िरंगी होने की रू से उसके नज़दीक आने से इनकार कर दिया, मगर फिर रौशन अली खाँ के, और उसकी बीवी के, जो ख़ूबसूरत जवान को बेबसी की हातल में देखकर काफ़ी दुखी थी, मिन्नत-समाजत करने से उसकी देखभाल करने पर रज़ामन्द हो गई । उस नेक बीवी का मरहूम1 शौहर, यानी ऱौशन अली ख़ाँ का वालिद छोटा-मोटा हकीम था और हाँलाकि उसकी वफ़ात से ख़ानदान में यह पेशा ख़त्म हो चुका था, पर इस वास्ते से महसूस की बीवी को, जिन्होंने मरहूम से ज़्यादा लम्बी उम्र पाई, किसी हद तक हिकमत में दख़ल था। बहरहाल, उस अंग्रे़ज़ मरीज़ के सिलसिले में उन लोगों से जो हो सका, उन्होंने किया।
यकाएक गली में शोर उठा और चन्द लम्हों के अन्दर शोरे-क़ियामत मालूम होने लगा। फिर रौशन अली ख़ाँ के घर का दरवाज़ा धड़ाधड कूटा जाने लगा। घर के मालिक ने खिड़की से झाँककर देखा, तो हिन्दोस्तानी सिपाहियों की नंगी तलवारों और बरछियों के फल मशअलों की रौशनी में चमकते नज़र आए। गली में हर तरफ़ हाहाकार मची थी और सिर ही सिर नज़र आ रहे थे। थोड़ी देर तक अन्दर से कोई जवाब न मिला, तो बागियों ने दरवाज़ा तोड़ने का फ़ैसला किया।
अव्वल-अव्वल तो मुहल्ले के लोग घरों में दुबके बैठे रहे कि जाने किसकी मौत आई है। फिर जानिब है, तो जब बात खुल गई कि उस ग़ैज़ों-ग़ज़ब2 का रुखमहज़ रौशन अली खाँ के घर की जानिब है, तो चन्द सरबराहल दुबके-दुबकाए निकले और किसी-न-किसी तौर उस दरवाज़े तक पहुँचे, जिसके तोड़े जाने की तजवीज़ें हो रही थीं, वहाँ पर उन्हें जो बताया गया, वह यूं थाः ‘‘कर्नल जानसन, छावनी के कमांडिग अफ़सर, भेस बदलकर घेरे में से बच निकले हैं और दिल्ली पहुँचना चाहते हैं। रस्ते में चन्द सिपाहियों से उनकी मुठभेड हो हुई, लेकिन वह उनमें से तीन को मौत की नीद सुलाकर ख़ुद तलवार का जख़्म खाकर निकल आए हैं। अब की लकीर इस दरवाज़े में दाख़िल होती है उन्हें हमारे हवाले किया जाए वरना दरवाज़ा तोड़कर घरवालों को मौत के घाट उतार दिया जाएगा।’’ मुहल्ले के सरबराहों ने, जो कि ख़ुद डरे हुए थे, हर क़िस्म की मदद करने का वादा किया और बाग़ियों के गुस्से को उसी वक़्त ठंडा करके किसी-न-किसी रास्ते से मकान में दाखिल हुए। अब हर एक सरबराह अपनी-अपनी पगड़ी उतारकर रौशन अली ख़ाँ के पैरों पे रख रहा है, मिन्नतें कर रहा है, धमकियाँ और घुरकियाँ दे रहा है। पर हिम्मत का धनी रौशन अली ख़ाँ अपने अटल फ़ैसले पर क़ायम है कि जान जाती है, तो चली जाए, पर ज़ख़्मी मेहमान को दुश्मनों के हवाले न करूँगा।

इसके बाद वाक़ियात3 के सिलसिले में दास्तानगों4 के बयान में बड़ी गड़बड़ी थी। कभी वह कहता, कि जब दरवाज़ा तोड़ा गया, तो बहादुर नौजवानों ने एक कन्धे पर ज़ख़्मी मेहमान को, दूसरे पर अपनी बीवी को बिठाया और लड़ता-भिड़ता हुआ सही-सलामत निकल ले गया। कुछ मौकों पर उसके यह भी बयान दिया था कि चन्द मसलहतों के बिना पर बाग़ी दरवाज़ा तोडने से बाज़ रहे, मगर सारे इलाके़ को घेरे में ले लिया और रसदों-रसाइल5 के तमाम वसाइल6 बन्द कर दिए गए। यह सिलसिला कई हफ़्तों तक जारी रहा। यहाँ तक कि अहालियानेशहर7 पर फ़ाक़ों की नौबत आ गई। फिर ख़ुदा कि फ़िरंगियों को फ़तह नसीब हुई और
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
1. स्वर्गीय, 2. क्रोध व रोष, 3. घटनाएं, 4. कथावाचक, 5. खाने-पीने का सामान, 6. साधन, 7. नगरवासियों।

मुहासिरीन1 को नजात2 मिली। एक हिकायत यह भी थी रौशन अली ख़ाँ को जब भागने का कोई रास्ता दिखाई न दिया, तो घर के फ़र्श में एक सुरंग लगानी शुरू की, जो छावनी में जा निकली। उस रास्ते से कर्नल जानसन और अपनी बीवी को निकालकर ले गया और आख़िरकार मुहल्ले के सरबराहों की राय से जब घर का दरवाज़ा एक दिन तोड़ा गया, तो घर में सिर्फ़ एक बुड्ढ़ी औरत की लाश मिली। वह घर के मालिक की माँ थी, जो पहले रोज़ ही सदमें की वज़ह से राह-ए-मुल्कें-अदब3 हो गई थी। क़िस्सा मुख़्तसर यह, कि सरहराहों और बागियों को पहुँच पछतावा हुआ। इन हिकायात4 की सेहत5 की तरफ़ तवज्जुह देने की किसी को ज़रूरत यूँ महसूस न हुई, कि उसके बाद दास्तानगों के ख़यालात की लड़ी फिर सुलझ जाती और वह कमाले-यकसूई से यूँ गोया होता6 : जब ग़दर का ख़ातिमा हुआ और बाग़ियों को करनी की सज़ा मिली, तो कर्नल जानसन ने, जो शाहे-इंगलिस्तान के क़रीबी अज़ीज़ों में से था, रौशन अली ख़ाँ को दिल्ली दरबार में बुला भेजा और अपने दस्तें-ख़ास7 से ख़िलअत8 अता की, और कहा, कि जाओ, और जाकर जितनी ज़मीन, जहाँ से चाहों, घेर लो तुम्हें इनायत की जाएगी। इसके बाद उस फ़ैयैज़9 अंग्रेज़ हाकिम ने जिसे उर्दू जबान पर गैर-मामूली कुदरत हासिल थी, एक अजीबों-गरीब तरक़ीब के दौरान (जिसका तफ़्सीली जिक्र आगे चलकर आएगा) नवाब रौशन अली ख़ाँ को आग़ा का लक़ब10 अता किया।

ज़मीन घेरने के मुतअल्लिक़ दो रियायतें11 थीं। एक में मुताबिक़ नवाब साहिर ने घोड़े पर सवार होकर चक्कर लगाया और घोड़े की पूँछ के साथ एक शहद भरा टीन बाँध दिया, जिसके पेन्दें में सूराख़ था। शहद टपकता रहा और कीड़े-मकौड़े आकर उस पर जमा होते गए। इस तरह क़ुदरती हदबन्दी ज़मीन की हो गई। दूसरी के मुताबिक़ उन्होंने पैदल भागना शुरू किया और बाँस की खपच्चियाँ रास्तें में गाड़ते गए। सूरज डूबने के वक्त जब वापस पहुँचे, तो साँस उखड़ गई। पलटकर गिरे और मरते-मरते बचे। इस सवाल के जवाब में भी कि रहने के लिए ख़ासतौर पर इलाक़े का इन्तिख़ाब12 कैसे और क्यों अमल में आया, कई

रियायतें मशहूर थीं, जिनका बयान इस किताब मशहूर थीं, जिनका बयान इस किताब के एहाते से बाहर है।
इस सारी हिकायत के हर्फ़-ब-हर्फ़13 सहीं होने को यूं भी अक़्ले-सलीम14 नहीं मानती। फिर भी मुनासिब काट-छाँट के बाद इसे हक़ीक़त से क़रीबतर लाया जा सकता है। यह तो हबरहाल, सबके देखे की बात थी कि जब तक कर्नल जानसन हिन्दुस्तान में रह, हमेशा शिकार के लिए रौशनपुर आते रहे और जब रौशन आग़ा यूरोप गए, तो उन्हीं के पास ठहरे और फ़ैज़15 पाया।

इस तरह रौशनपुर की जागीर, जो पाँच सौ मुरब्बों पर मुहीत16 थी, क़ियाम17 में आई। वाहिद मालिक रौशन आग़ा थे।
रौशन आग़ा ने अपने मामूली पसमंज़र18 के बावजूद इस अज़ीम ज़िम्मेदारी को पूरी तरह निभाया, इस बेश-बहा ख़िलअत और जागीर की नवाज़िश19 से उन पर आ पड़ी थी आख़िरी उम्र में उन्होंने यूरोप का सफ़र किया और अपने बेटे को तालीम के लिए विलायत भेजा, गो वापस लौटकर उसने एक ऐसी हरकत की, जिससे उन्हें स़ख़्त सदमा पहुँचा, यानी उसने दिल के हाथों मजबूर होकर एक ऐसे घराने की लड़की से शादी कर ली, जिसके आबाई पेशे20 को शुरफ़ा21 में अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता। उसके बाद से उनका लड़का हमेशा दिल्ली के रौशन महल में रहा। रौशन महल वह आलीशान मकान था, जो रौशन आग़ा ने रिहाइश़ की ख़ातिर दारूससल्तनत22 में तामीर23 कराया था।
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
1. घेरा डालने वाले, 2. मुक्ति 3. यमलोक की राही, 4 कहानियाँ, 5. सत्ययता, 6. निश्चिंतता से यूं कहता, 7. विशेष करकमलों, 8. सम्मानार्थ दिए जानेवाले वस्त्र, 9. दानशील, 10 उपाधि, 11. किसी से सुनी हुई बातें, 12. चुनाव, 13. अक्षरशः, 14. सदबुद्धि, 15. लाभ, 16. फैली हुई, 17. अस्तित्व, 18. पृष्ठभूमि, 19 कृपा, 20 पूर्वजों का व्यवसाय, 21. कुलीन लोग, 22. राजधानी, 23. निर्मित।

गाँव के बीच बड़ी-सी पक्की हवेली थी, जिसमें रौशन आग़ा कई बरस तक रहे थे। उनके गिर्दा-गिर्द पचास-पचास गज तक जगह खाली पड़ी थी, जहाँ किसी वक्त में बड़ा खूबसूरत बाग़ीचा होगा, लेकिन अब महज़-ख़ुश्क पौधे और टुंड-मुंड दरख़्त खड़े थे हवेली मुद्दत से खाली पड़ी थी। ज़िन्दगी के आख़िर बरसों में रौशन आग़ा ने अपने बेटो को मुआफ़ कर दिया था और जाकर रौशन महल में रहने लगें थे, जिससे कि उनके बेटे




प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book